रविवार, 31 दिसंबर 2023

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

 नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं


नमस्कार। 

आप सभी पाठकों को मेरा प्यार भरा नमस्कार। आप सभी को नूतन वर्ष 2024 की हार्दिक शुभकामनाएं। विगत वर्ष कुछ ब्लाॅग बहुत पसंद किए गए। हालांकि बहुत कम ब्लाॅग लिखा मैंने। लेकिन इस वर्ष कोशिश रहेगी कि कुछ नये विषयों पर कुछ अच्छा लिख सकूं। 

आप सभी का प्यार और स्नेह ऐसे ही बना रहे। 

एक बार पुनः आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं। 

सादर,

डाॅ. गुरु सरन लाल





एक यात्रा की शुरूआत

यात्रा की शुरूआत
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जिला ताईक्वांडो संघ, दुर्ग (छत्तीसगढ़) के तत्वावधान में आज दिनांक 31 दिसंबर 2023 को जिला ताइक्वांडो प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। मेरी प्यारी बेटी एंजल ने पहली बार ताइक्वांडो प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर कांस्य पदक हासिल किया। एंजल का उत्साह देखते ही बनता था। बेटी को बहुत-बहुत बधाई, शुभकामनाएं और आशीर्वाद👏💐🙏🍫

सोमवार, 4 सितंबर 2023

अच्छी आदतें ले जाती है मंजिल तकः माया गौतम


(आज मेरी पत्नी श्रीमती माया गौतम का एक लेख वीएनएम टेलीविजन की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है। बहुत प्रसन्नता हो रही है। अपने पाठकों के लिए पूरा लेख अपनी पत्नी की अनुमति से प्रकाशित कर रहा हूं। )

अच्छी आदतें ले जाती है मंजिल तक


    जीवन में आदतों का बहुत महत्व होता है । हम तो सोचते हैं, जिस तरह का कार्य करते हैं, धीरे-धीरे वह हमारी आदत में शामिल हो जाता है। आदतें दो तरह की होती हैं-अच्छी आदतें और बुरी आदतें।  हमें हमेशा अच्छी आदतों को अपनाना चाहिए क्योंकि अच्छी आदतें हमें अपनी मंजिल तक पहुंचाती हैं जबकि बुरी आदतें सफलता के पथ में बाधा बनती हैं। उचित प्रयासों से समय के साथ आदतों में बदलाव किया जा सकता है। समय पर स्कूल जाना या ऑफिस जाना एक आदत है जबकि देर से स्कूल या देर से ऑफिस जाना भी एक आदत है। सफलता एक आदत है और विफलता भी एक आदत है। सुबह जल्दी उठना एक आदत है और देर से उठना भी एक आदत है। यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम किस आदत का चयन करते हैं। हम जिस आदत का चयन करते हैं हमारा दिमाग उसी तरह कार्य करना प्रारंभ कर देता है। हमारा दिमाग दुनिया का सबसे बड़ा सुपर कंप्यूटर है। जिस तरह का प्रोग्राम हम बनाएंगे वह उसी तरह एक्सक्यूट करके हमें परिणाम प्रदान करता है। यह एक अच्छी बात है कि हम मेहनत से और अच्छे प्रयासों से दिमाग को अच्छी आदतों की ट्रेनिंग दे सकते हैं । यह एक जादू की तरह कार्य करता है। यदि आपने किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प ले लिया तो आज यकीन मानिए आधा रास्ता आपने अपने आप तय कर लिया है। यह पूरा कार्य दिमाग करता है और पूरा शरीर या सारी इंद्रियां उसी दिशा में कार्य करना प्रारंभ कर देती हैं। हमारी आदतें भी उसी तरह बन जाती हैं। सफलता प्राप्त करने में जिस तरह सही लक्ष्य का चयन करना बहुत जरूरी है उसी तरह अच्छी आदतों का भी चयन बहुत जरूरी है। आज तक कोई ऐसा व्यक्ति सफल नहीं हुआ जिसमें अच्छी आदतें न रही हों। अच्छी आदतें हमें सकारात्मक विचारों से भर देती हैं, जबकि बुरी आदतें नकारात्मक विचारों से।  सफलता प्राप्त करने में सही लक्ष्य, उचित प्रयास, कठिन परिश्रम और अच्छी आदतों का होना बहुत जरूरी है।

 तो बच्चों यदि आप आज ही अपनी आदतों का परीक्षण कीजिए और पता लगाइए कि कौन-कौन सी बुरी आदतें हैं और उनको बदलने में लग जाइए। यह आसान नहीं है और असंभव भी नहीं है। लगातार प्रयासों से यह संभव है। 


माया गौतम




MAYA GAUTAM


 https://vnmtvnews.com/good-habits-take-you-to-your-destination/


शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

लेख: पत्रकारिता में फोटोग्राफ की प्रासंगिकता



पत्रकारिता में फोटोग्राफ की प्रासंगिकता

 
पत्रकारिता जगत में फोटोग्राफ का बहुत महत्व है। इससे समाचार की प्रमाणिकता आसानी से हो जाती है, वहीं दूसरी तरफ इसका आकर्षण भी समाचार सामग्री को पठनीय व दर्शनीय बना देता है। समाचार-पत्र व पत्रिकाओं में शुरुआत से ही समाचारों के साथ उससे संबंधित फोटोग्राफ के प्रकाशन का चलन रहा है। फोटोग्राफ की महत्ता को देखते हुए समाचार पत्र व पत्रिकाओं के कार्यालयों में स्वतंत्र रूप से फोटो पत्रकार की नियुक्ति की जाती है। 
प्रत्येक वर्ष 19 अगस्त को विश्व फोटोग्राफी दिवस मनाया जाता है। यह दिवस उन सभी फोटोग्राफर को समर्पित है जिन्होंने अपनी कला से दुनिया की खूबसूरती को कमरे में कैद किया है। यह दिन फोटोग्राफी के महत्व को समझने और फोटोग्राफर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का भी दिन है। इसी दिन फ्रांस सरकार ने डागोरोटाइप  फोटोग्राफी तकनीक के आविष्कार की घोषणा की थी। इसका आविष्कार जोसेफ नाइसफोर और लुइस डागेर नाम के दो वैज्ञानिकों ने की थी।
Photo courtesy: Google

फ्रेड आर बर्नार्ड के अनुसार एक अच्छी फोटो एक हजार लिखे गए शब्दों से भी अधिक प्रभावी होती है। जिस शिद्दत से फोटो मानवीय संवेदनाओं को उकेर सकती है, झकझोर सकती है, शायद उतनी ताकत लिखे गए शब्दों में भी नहीं होती। भाउकता के क्षणों के फोटो जैसे किसी दुर्घटना, आपदा, विवशता, लाचारी इत्यादि के भावों को एक फोटो आसानी से अभिव्यक्त कर सकती है। समय के साथ फोटोग्राफी में भी विशेषज्ञता का चलन बढ़ा है। वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी, फैशन फोटोग्राफी, वेडिंग फोटोग्राफी स्पोर्ट्स फोटोग्राफी, स्ट्रीट फोटोग्राफी, ड्रोन फोटोग्राफी , सेल्फी फोटोग्राफी इत्यादि। फोटो फीचर का भी बहुत महत्व है। किसी एक फोटो को कम से कम शब्दों में बयां करना और अधिकतर बातें फोटो ही बयां कर दें, उसे फोटो फीचर कहा जाता है। यह चलन भी पत्रकारिता में बहुत पहले से है और वर्तमान में बढ़ गया।
फोटोग्राफी के क्षेत्र में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। अगर अच्छा विजन है और चीजों को बारीकी से देखने की कल्पना शक्ति है तो यह क्षेत्र अपार संभावनाएं लिए हुए है। साथ ही अच्छी कमाई भी होती है। वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी और फैशन फोटोग्राफी के प्रोजेक्ट लाखों में होते हैं। एक तरफ जहां फोटोग्राफी में अपार संभावनाएं हैं तो चुनौतियां भी कम नहीं हैं। विभिन्न सॉफ्टवेयर के माध्यम से फोटो को आकर्षक हुआ प्रकाशन/ प्रसारण योग्य बनाया जाता है तो दूसरी तरफ से फेक फोटो भी एक बड़ी चुनौति है। फोटो के माध्यम से ब्लैकमेलिंग भी एक चुनौति है।  सोशल मीडिया व सेल्फी फोटोग्राफी के इस दौर में फोटोग्राफ को बहुत आसानी से लाखों लोगों तक एक साथ पहुंचाया जा सकता है। बदलते दौर में पत्रकारिता के क्षेत्र में फोटोग्राफी आज भी बहुत प्रासंगिक है। यह फेक न्यूज़ को पता लगाने में भी बहुत सहायक है।
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*लेखक डॉ. गुरु सरन लाल, एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, पत्रकारिता एवं जनसंचार संकाय, भारती विश्वविद्यालय, दुर्ग (छत्तीसगढ़)*

बुधवार, 16 अगस्त 2023

लेख

 सतत व समेकित आदिवासी विकास की आवश्यकता


               प्रत्येक वर्ष 09 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है। आदिवासी कला और संस्कृति की सराहना की जाती है। उत्सव मनाये जाते हैं। साथ ही आदिवासी मुद्दों व विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता है। मेरे विचार से यह दिवस हर्ष मनाने का दिन नहीं है। यह दिन आदिवासी विकास हेतु गंभीर विचार-विमर्श, युक्तियों व सुझावों का दिन होना चाहिए। यह सोचा जाना चाहिए कि साल-दर-साल, दशक-दर-दशक गुजरते जा रहे हैं लेकिन आदिवासी समाज की स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं देखा जा रहा है। इस पर गंभीर चिंतन मनन की जरूरत है। 

बात चाहे आदिवासी समुदाय की शिक्षा, रोजगार, मूलभूत सुविधाओं की हो, आर्थिक विकास, सामाजिक-सांस्कृतिक विकास की हो या सुरक्षा की हो, बहुत सारे सवाल एक साथ खड़े हो जाते हैं, जिनका जवाब ढ़ूंढ़ना बहुत मुश्किल लेकिन जरूरी है। इनकी परिस्थितियों को बदलने के प्रयास जिस स्तर पर होने चाहिए थे, नहीं हुए। आजादी के 75 वर्ष बाद भी आदिवासी समाज की स्थिति चिंतनीय है। आदिवास समुदाय विस्थापन, अशिक्षा, बेरोजगारी, असमानता, अंधविश्वास, मूलभूत सुविधाओं की कमी आदि से जूझ रहा है। 

प्रशासन की दृष्टि से भी भारतीय संविधान में आदिवासी समाज के विकास हेतु विशेष प्रावधान किये गए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244(1) तथा 244(2) में अनुसूचित क्षेत्रों तथा जनजातिय क्षेत्रों के प्रशासन का प्रावधान है। संविधान की पांचवीं अनुसूची में इसका विवरण है। भारत का राष्ट्रपति किसी भी राज्य का कोई क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकता है। दूसरे शब्दों में यह देश के राष्ट्रपति द्वारा घोषित किसी राज्य का वह भूखण्ड है जहां जनजातियां निवास करती हैं। अनुसूचित क्षेत्र के लिए राज्यों के राज्यपाल यदि चाहें तो सामान्य कानूनों को आदिवासियों पर लागू करते समय परिवर्तन या परिसीमन कर सकते हैं। वे इन घोषित क्षेत्रों में शांति बनाए रखने एवं प्रशासन के भली भांति संचालन के लिए नियम भी बना सकते हैं। ये नियम पंचम अनुसूची में वर्णित भूमि हस्तांतरण को रोकने, भूमि आवंटन करने, व्यापारियों एवं महाजनों की गतिविधियों को नियंत्रित करने आदि के बारे में हो सकते हैं।

आदिवासी विकास में मीडिया की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण है। दरअसल लंबे अरसे से आदिवासी क्षेत्र आधुनिक संचार माध्यमों से कटे रहे हैं। इसके दो कारण हैं एक तो आदिवासी समुदाय आधुनिकता के प्रति कोई खास लगाव नहीं होता। वे अपनी जड़ों से जुड़कर परंपराओं के बीच खुश रहते हैं। दूसरा, जिस तरह के प्रयास सरकारों को करने चाहिए थे, नहीं किए। दिशाहीन दौड़ विकास नहीं है। आदिवासियों से सीखें और सिखाएं। हम उनकी संस्कृति को समझते हुए गंभीरता से उन्हें देश-दुनिया का ज्ञान पहुचाएं। आदिवासियों के पास भी ज्ञान का भंडार है। इसका भी उपयोग होना चाहिए।

सतत व समेकित आदिवासी विकास हेतु सरकारंे, स्वयं सेवी संस्थाएं, गैर सरकारी संगठन, मीडिया तो अपना कार्य कर रही हैं। साथ ही आदिवासी विकास हेतु आदिवासी समाज व युवाओं को आगे आना चाहिए। युवाओं से सबसे ज्यादा उम्मीदें होती हैं। वे उम्मीद व ऊर्जा से भरे होते हैं।

                                                    -डाॅ. गुरु सरन लाल

दिनांक 12 अगस्त 2023 को पहट समाचार-पत्र में प्रकाशित लेख


मंगलवार, 1 अगस्त 2023

डिजिटल मीडिया के दौर में फोक मीडिया की चुनौतियां

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डिजिटल मीडिया के दौर में फोक मीडिया की चुनौतियां


         फोक मीडिया समूह संचार या सामुदायिक संचार का सबसे पुरातन और प्रभावी संचार माध्यम है। फोक मीडिया के माध्यम से छोटे-छोटे समूह में जन जागरुकता संबंधी संदेशों को आसानी से, प्रभावशाली तरीके से पहुंचाया जा सकता है। न सिर्फ समूह संचार बल्कि व्यापक स्तर पर भी इसका असर देखा गया है। फोक मीडिया के अन्तर्गत लोकगीत, लोकसंगीत, लोक नृत्य, नुक्कड़ नाटक, कठपुतली, लोक कथा, लोक गाथा इत्यादि शामिल होते हैं। प्राचीन काल से ही इन कलाओं का समाज में बहुत महत्व रहा है। ये लोगों की रूचियों और परंपराओं में रचे-बसे माध्यम हैं। लोक माध्यमों की लोकप्रियता का वर्णन करते हुए सीन मैकब्राइट ने कहा था कि जन सामान्य के प्रति अपने व्यापक आकर्षण और लाखों निरक्षर लोगों के गहनतम संवेगों को छूने के अपने गुण की दृष्टि से गीत और नाटक का माध्यम अद्वितीय है। 

भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अन्तर्गत गीत एवं नाटक प्रभाग का कार्य लोक कलाकारों की खोज करना, उन्हें प्रोत्साहन देना और उन्हें मंच प्रदान करना है। फोक मीडिया के कलाकारों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है। स्पीकमैके जैसी निजी संस्थाएं और सोसाइटी भी अपने स्तर पर लोक कलाओं के प्रचार-प्रसार का कार्य कर रही हैं और कलाकारों को मंच प्रदान किये जा रहे हैं। लोकगीत-संगीत, नुक्कड़ नाटक, कठपुतली नृत्य इत्यादि का प्रदर्शन किया जाता है। सोसाइटी फाॅर प्रमोशन आॅफ इण्डियन कल्चर एमंग यूथ-यह संस्था भी लोक संचार के प्रति लोगों को प्रेरित करती है। जहां कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। यह उनकी आजीविका का प्रमुख साधन है। नशा, मद्यपान, निरक्षरता, अंधविश्वास, सामप्रदायिक वैमनस्य (भेदभाव), कुपोषण जैसी ज्वलंत समस्याओं के निराकरण के लिए लोक माध्यमों का सार्थक उपयोग किया जा रहा है। 1972 के यूनेस्को रिपोर्ट में कहा गया है कि पारंपरिक माध्यम, व्यावहारिक परिवर्तन लाने और निचले स्तर पर विभिन्न समुदायों को समकालीन मुद्दों के प्रति जागरूक करने में जीवंत भूमिका निभाते हैं। 


Source: Google

जैसा होता आया है कि नया माध्यम पुराने माध्यम का स्थान लेता है। स्थान न भी लेता हो, तो भी उसे प्रभावित अवश्य करता है। वर्तमान डिजिटल समय में फोक मीडिया और इसके कलाकारों के समक्ष काफी चुनौतियां हैं। डिजिटल मीडिया का अपना आकर्षण है और इसके प्रति लोगों की दीवानगी देखते बनती है। वहीं दूसरी तरफ फोक मीडिया को पुराना माध्यम माना जाता है जबकि इसकी प्रभावशीलता और पहुंच काफी अधिक है। फोक मीडिया संवेदनाओं को उकेरने का कार्य आसानी से करता है। मीडिया मिक्स के इस दौर में फोक मीडिया की अन्तर्वस्तु को आसानी से सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफाॅर्म के माध्यम से प्रचारित प्रसारित किया जा सकता है। ब्लाॅग, वेबपोर्टल, यूट्यूब चैनल आदि के माध्यम से फोक मीडिया के कार्यक्रमों या अन्तर्वस्तु को लोगों तक पहुंचाया जा सकता है। इससे सबसे अधिक प्रभावित युवा पीढ़ी होगी। 

हम कितने भी डिजिटल हो जाएं लेकिन मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने तथा अपनी जड़ों से जुड़े रखने में फोक मीडिया का कोई मुकाबला नहीं है। भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक इत्यादि आधारों पर समाज के समग्र विकास में लोक माध्यम अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं बशर्ते इस पर पूरा ध्यान दिया जाए। ग्रामीण क्षेत्रों में निवासरत लोगों को जागरूक करने, अनौपचारिक शिक्षा देने, प्रेरित प्रोत्साहि करने में ये माध्यम सस्ते, सुलभ और प्रभावशाली हैं। 

                                                                                  -डाॅ. गुरु सरन लाल

शुक्रवार, 26 मई 2023

आज भारत भास्कर समाचार पत्र में प्रकाशित विज्ञापनों में नैतिकता का प्रश्न' विषयक एक लेख

आज भारत भास्कर समाचार पत्र में प्रकाशित विज्ञापनों में नैतिकता का प्रश्न' विषयक एक लेख 




हाल ही में पूर्व क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने इंटरनेट पर चल रहे फर्जी विज्ञापनों में उनके नाम, फोटो और आवाज इस्तेमाल करने पर धोखाधड़ी का मुकदमा मुंबई क्राइम ब्रांच में दर्ज कराया है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने यह भी आरोप लगाया है कि विज्ञापन में नीचे लिखा हुआ था कि प्रोडक्ट को खुद सचिन ने रिकमेंड किया है। 

फर्जी विज्ञापनों को लेकर आए दिन शिकायतें बढ़ रही हैं। ये विज्ञापन, उपभोक्ताओं को भ्रमित करके प्रभावित करने के लिए तैयार किये जाते हैं। यहीं पर विज्ञापनों में नैतिकता का प्रश्न उठता है। भारत में विज्ञापनों की देखरेख के लिए और इनकी गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) को जिम्मेदारी दी गई है। एएससीआई भारत में विज्ञापन उद्योग का एक स्वैच्छिक स्व-नियामक संगठन है। यह 1985 में स्थापित, कंपनी अधिनियम की धारा 25 के तहत एक गैर-लाभकारी कंपनी के रूप में पंजीकृत है।

एएससीआई उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए विज्ञापन में स्व-विनियमन के लिए प्रतिबद्ध है। यह सुनिश्चित करना चाहता है कि विज्ञापन स्व-विनियमन के लिए अपने कोड के अनुरूप हों, जिसके लिए विज्ञापनों को कानूनी, सभ्य, ईमानदार और सच्चा होना चाहिए, और प्रतिस्पर्धा में निष्पक्षता का पालन करते हुए खतरनाक या हानिकारक नहीं होना चाहिए।  एएससीआई प्रिंट, टीवी, रेडियो, होर्डिंग्स, एसएमएस, ईमेलर्स, इंटरनेट/वेबसाइट, उत्पाद पैकेजिंग, ब्रोशर, प्रचार सामग्री और बिक्री के बिंदु सामग्री आदि जैसे सभी मीडिया में शिकायतों को देखता है।

मीडिया की आर्थिक आय के साधन हैं विज्ञापन। मीडिया को विज्ञापनों से आमदनी होती है। विज्ञापनों को बहुत ही आकर्षक तरीके से बनाया जाता है ताकि वे अधिक से अधिक लोगों को प्रभावित कर सकें।  किसी उत्पाद, सेवा या विचार के प्रचार-प्रसार के लिए विज्ञापन बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। ये उपभोक्ताओं के मध्य किसी उत्पाद, सेवा या विचार के प्रति जागरूकता पैदा करने में मदद करते हैं। विज्ञापनों के माध्यम से बहुत अल्प समय में ही किसी उत्पाद या ब्रांड से संबंधित सारी जानकारियां दी जाती है। विज्ञापनों में जनसंचार के बुलेट सिद्धान्त का पालन किया जाता है। इसके अनुसार विज्ञापनदाता अपने विज्ञापन को इतने प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करता है कि लोगों पर उसका प्रभाव पड़ेगा ही। इसमें फीडबैक की प्रतीक्षा नहीं की जाती है। 

विज्ञापन में नैतिकता का बहुत महत्व है। विज्ञापनों का प्रभाव लोगों पर बहुत होता है। उपभोक्ताओं का विश्वास होता है कि विज्ञापन में दिखाया जा रहा है तो इसका मतलब है कि यह उत्पाद बहुत अच्छा होगा। वे विज्ञापनों पर विश्वास करके किसी उत्पाद या सेवा का उपयोग करने लगते हैं। जब कोई सेलीब्रिटी विज्ञापन में दिखाया जाता है तो लोगों का विश्वास और बढ़ जाता है। यदि विज्ञापन ही फर्जी हो या उसमें चीजों को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है तो ऐसे में उपभोक्ता धोखा खा जाते हैं। 

डिजिटल मीडिया के दौर में विज्ञापनों का स्वरूप भी बदल गया है। टेक्ट्स, पिक्चर, ऑडियो-विजुअल, एनिमेशन इत्यादि का उपयोग करके विज्ञापनों को इतने प्रभावशाली तरीके से तैयार किया जाता है कि उपभोक्ता खीचे चले आते हैं। जिस तरह से ऑनलाइन शाॅपिंग का चलन बढ़ा है ऐसे में डिजिटल विज्ञापन या ऑनलाइन विज्ञापन का महत्व भी बढ़ गया है। किसी वेबसाइट, सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्म पर इन विज्ञापनों की भरमार है। ऐसे में आम उपभोक्ताओं को सही विज्ञापन और फर्जी विज्ञापनों की पहचान करना बहुत कठिन हो गया है। 

कुछ वर्ष पहले न्यायालय ने एक आदेश दिया था कि जो सेलिब्रिटी जिस विज्ञापन में प्रदर्शन कर रहा है, उस विज्ञापन की सत्यता की जिम्मेदारी उसकी भी होगी। यदि विज्ञापन फर्जी होगा तो इसके लिए वह स्वयं भी जिम्मेदार होगा। विज्ञापनों पर यह आरोप भी लगता है कि विज्ञापनों में महिलाओं को वस्तु की तरह प्रस्तुत किया जाता है। यदि पुरूषों से जुड़ा कोई उत्पाद हो तो उसमें भी महिलाओं को दिखाया जाना विज्ञापनों में नैतिकता का प्रश्न उठता है। 

डिजिटल मीडिया के दौर में सही और गलत विज्ञापन की पहचान कर पाना बहुत मुश्किल है। सरकार और एएससीआई अपने स्तर पर फर्जी विज्ञापनों को रोकने के लिए कार्य कर रही है लेकिन उपभोक्ताओं को भी सावधान रहना होगा। विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों को भी सक्रियता दिखानी होगी।जागरूकता व सावधानी से फर्जी विज्ञापनों के चंगुल से बचा जा सकता है।


-डाॅ. गुरु सरन लाल



सोमवार, 24 अप्रैल 2023

Article on Public Relations day published in Bharat Bhaskar 22.04.2023

 

लेख


*जनसंपर्क के क्षेत्र में नई प्रवृत्तियां*

प्रत्येक वर्ष 21 अप्रैल को राष्ट्रीय जनसंपर्क दिवस मनाया जाता है। पब्लिक रिलेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया (पी.आर.एस.आई.) द्वारा 1986 में यह निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वर्ष 21 अप्रैल को राष्ट्रीय जनसंपर्क दिवस मनाया जाएगा। पीआरएसआई, जनसंपर्क प्रैक्टिशनर्स का एक राष्ट्रीय संघ है जिसकी स्थापना 1958 में जनसंपर्क को एक पेशे के रूप में मान्यता को बढ़ावा देने और एक रणनीतिक प्रबंधन कार्य के रूप में जनसंपर्क के उद्देश्यों और संभावनाओं को विस्तार देने के लिए की गई थी। वर्ष 2023 की थीम ‘जी-20 और भारतीय मूल्यः जनसंपर्क परिप्रेक्ष्य’ रखा गया है। 
जनसंपर्क एक प्रबंधकीय कार्य है। जनसंपर्क मूलरूप से पत्रकारिता एवं जनसंचार का एक स्वरूप है, जिसके माध्यम से किसी संस्थान या व्यक्ति की छवि निर्माण करने, मीडिया रिलेशन बनाने जैसे कार्य किये जाते हैं। जनसंपर्क के प्रकारों की बात की जाए तो केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के जनसंपर्क, कार्पोरेट जनसंपर्क, राजनीतिक जनसंपर्क, व्यक्तिगत जनसंपर्क, निजी संस्थानों के जनसंपर्क इत्यादि आते हैं। 
शुरूआत में जनसंपर्क का क्षेत्र प्रेस-विज्ञप्ति तैयार करने, प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करने, हाऊस जर्नल प्रकाशित करने तक सीमित था लेकिन वर्तमान में जनसंपर्क के रूप और स्वरूप में बहुत बदलाव देखने को मिलते हैं। ये बदलाव मीडिया के रूपों में आए बदलाव के कारण भी है। वर्तमान में जनसंपर्क के अन्तर्गत प्रेस-विज्ञप्ति तैयार करना, प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करना, स्वस्थ मीडिया रिलेशन बनाना, प्रेस विजिट आयोजित करना, विज्ञापन जारी करना इत्यादि कार्य के साथ ही विभिन्न डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी लगातार जुड़े रहना व अपडेट देना भी जनसंपर्क का कार्य है। आंतरिक व बाह्य पब्लिक से लगातार संपर्क व संवाद बनाए रखना। डैमेज कंट्रोल व विपदा नियंत्रण करने हेतु भी जनसंपर्क का उपयोग किया जाता है। वर्तमान में एक जनसंपर्क अधिकारी की भूमिका व कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। उसे एक साथ पत्रकार और संचारक दोनों ही भूमिकाएं निभानी पड़ रही हैं। 
विभिन्न संस्थान या विभाग का अपना ट्विटर हैंडल, यूट्यूब चैनल, फेसबुक एकाउंट व फेसबुक पेज, इंस्टाग्राम पर एकाउंट, वेबपोर्टल, वेबसाइट इत्यादि प्लेटफाॅर्म हैं, जहां सभी सूचनाएं अद्यतन मिल जाती हैं। जनसंपर्क विभाग लगातार इन सूचनाओं को अपडेट करता है। प्रेस-विज्ञप्ति, सूचना, बैठक सूचना इत्यादि की जानकारियां आसानी से मिल जाती हैं। 
वर्तमान सूचना और प्रौद्योगिकी के दौर में जब झूठी व निराधार सूचनाएं, अफवाहें, प्रोपेगेण्डा आसानी से फैलाये जाने की संभावना अधिक है, ऐसे में इसे रोकने में जनसंपर्क विभाग की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। किसी भी ऐसी स्थिति से निपटने की जिम्मेदारी भी जनसंपर्क अधिकारी व जनसंपर्क विभाग की है कि समय रहते सत्य को लोगों तक पहुंचाया जाए। नहीं तो संस्थान की छवि को नुकसान हो सकता है। ब्रांड इमेज आसानी से नहीं बनती। क्राइसिस मैनेजमेंट का कार्य भी जनसंपर्क विभाग द्वारा किया जाता है। यदि एक बार छवि खराब हो जाए तो सालों लग जाते हैं इसे बनाने में। वैसे क्राइसिस कम्युनिकेशन, संचार के एक नए क्षेत्र के रूप में विकसित हो रहा है जिस पर अध्ययन और शोध जारी है। 
बदलते दौर में जनसंपर्क का दायरा बढ़ा है। इसके स्वरूप में भी परिवर्तन आए हैं। एक बेहतर जनसंपर्क के लिए जरूरी है कि वह समय के साथ-साथ अपने में बदलाव लाए। नई-नई सूचना व संचार प्रौद्योगिकी के अनुरूप अपनी अन्तर्वस्तु का निर्माण, चयन व उसका प्रचार-प्रसार करे। फेक न्यूज से जूझते हुए सत्य बात को लोगों तक पहुंचाना व उन्हें विश्वास में लेना सबसे बड़ी चुनौति है।

रविवार, 23 अप्रैल 2023

किताबों की दुनिया

    किताबों की दुनिया, ज्ञान की दुनिया है। अनुभवों की दुनिया है। ऐसी दुनिया जहां कल्पनाएं हैं, सपने हैं और उन सपनों को साकार करने के रास्ते भी हैं। ऐसी दुनिया जहां जीवन है, संबंध है, प्रेरक-रोचक किस्से हैं, इतिहास है, साहित्य है, संगीत है। खुशनशीब हैं वे लोग जिनके हाथों में किताबें हैं। जो पढ़-लिख सकते हैं। 


PC: Facebook wall of Rajkamal Prakashan Samuh


किताबें हमारे विचारों को, कल्पनाओं को, अनुभवों को, सोचने-समझने के दायरे को नया आकाश देती हैं। नया विस्तार देती हैं। एक लेखक अपने ज्ञान और अनुभव को किताब के रूप में सामने लाता है। जिन किताबों को हम दो-तीन दिन में पढ़ लेते हैं, उनको लिखने में दो-तीन साल, कभी-कभी पांच-दस साल लग जाते हैं। किताबों में जो ज्ञान है वह कभी नष्ट नहीं होता। समय के साथ-साथ, अपने पाठकों के माध्यम से उसका भी विस्तार होता जाता है। 
किताबों व लेखकों के महत्व को बताने के लिए साथ ही काॅपीराइट के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए प्रत्येक वर्ष 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक एवं काॅपीराइट दिवस मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष एक थीम निर्धारित की जाती है। वर्ष 2023 की थीम है- स्वदेशी भाषाएं। किताबों का प्रचार करने, 
समय के साथ किताबों के रूप व स्वरूप में परिवर्तन आए हैं। ये परिवर्तन नई सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के कारण हैं। वर्तमान में प्रकाशित किताबों के साथ ही ई-बुक यानि इलेक्ट्राॅनिक किताबों का चलन बढ़ गया है। आप अपने फोन या टैबलेट के माध्यम से किताबों को पढ़ सकते हैं। 
समय के साथ-साथ पुस्तकालयों में भी आमूलचूक परिवर्तन देखे जा सकते हैं। अब ई-लाइब्रेरी, डिजिटल,  ऑनलाइन लाइब्रेरी की भी सुविधा उपलब्ध है। इंटरनेट आविष्कार के बाद निर्मित वैश्विक ग्राम में आप दुनिया के किसी भी लाइब्रेरी की सदस्यता ले सकते हैं और किताबें पढ़ सकते हैं। समय सीमा की भी कोई समस्या नहीं है। आप जब चाहें किताबें उपलब्ध हैं। सातों दिन, चैबिसों घंटे। 
पुस्तकों व लेखकों के बारे में प्रचार-प्रसार करने में पुस्तक मेलों का भी महत्व कम नहीं हैं। राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होने वाले इन पुस्तक मेलों में केेवल किताबों पर ही बातें नहीं होतीं। लेखकों, प्रकाशकों से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर भी सभा-संगोष्ठी होती है। यह एक अवसर होता है जब पाठक अपने पसंदीदा लेखक से रूबरू होकर, अपने प्रश्न पूछे सकता है। गुफ्तगू कर सकता है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा विभिन्न देश के विभिन्न शहरों में पुस्तक मेलों का आयोजन किया जाता है। साथ ही विभिन्न प्रकाशकों, संगठनों, समूहों द्वारा भी ऐसे प्रयास किये जाते हैं। 
मौलिक ज्ञान का अपना महत्व है। मौलिक रचनाएं पाठकों को बहुत प्रभावित करती हैं। रचनाओं की मौलिकता व लेखकों के अधिकारों को संरक्षित करने के उद्देश्य से काॅपीराइट एक्ट को लागू किया गया। कोई भी किताब या रचना पर उसके लेखक का अधिकार होता है। उसने बड़ी तपस्या से किताब लिखी होती है। ऐसे में लेखक के अधिकारों के संरक्षण के लिए काॅपीराइट एक्ट एक महत्वपूर्ण जरिया है। 
हमें रोज कुछ नया पढ़ना चाहिए और कुछ नया लिखना चाहिए। इससे न सिर्फ हमारी रचनात्मकता बरकरार रहती है बल्कि हम दुनिया को कुछ नया दे रहे होते हैं। विश्व पुस्तक एवं काॅपीराइट दिवस पर यही कामना है कि किताबों को उनके पाठक मिलें। लेखकों-प्रकाशकों का उत्साह बना रहे और वे नित नया ज्ञान सृजित करते रहें। ज्ञान की परंपरा कायम रहे। 
   -डॉ. गुरु सरन लाल 

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

Concept of Global Village/ वैश्विक ग्राम की अवधारणा

Concept of Global Village/ वैश्विक ग्राम की अवधारणा 

                                                                                            -डॉ. गुरु सरन लाल 

    इतिहास गवाह है कि जब किसी वैज्ञानिक या महापुरूष ने कोई नई बात कही है तब उसे समाज की आलोचना का शिकार होना पड़ा है। हवाई जहाज का आविष्कार करने वाले राइट ब्रदर्स हों, गति का नियम देने वाले न्यूटन हों, बल्व का आविष्कार करने वाले एडिशन हों, ऊर्जा का फार्मूला देने वाले अलबर्ट आइंस्टीन हों, या सुकरात हों।  ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जाएंगे। सुप्रसिद्ध संचारशास्त्री मार्शल मैकलुहान को भी अपने ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा के कारण काफी आलोचना झेलनी पड़ी। लेकिन तीन-चार दशक बाद उनकी यह अवधारणा/परिकल्पना बिल्कुल सही साबित हुई। 

                                                                                                      P.C.: Google


        संचारशास्त्री मार्शल मैकलुहान ने 1960 के दशक में वैश्विक ग्राम की अवधारणा दी थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग मीडिया’ में इसका उल्लेख किया है। वे कनाडा के रहने वाले थे। मूल रूप से हंगरी भाषा के कवि थे। उन्होंने जनसंचार का अध्ययन किया और बड़े संचारशास्त्री बने। उनकी दूरदर्शिता का एक प्रमाण है ग्लोबल विलेज की उनकी अवधारणा। इस अवधारणा के अनुसार आने वाले समय में पूरे विश्व में सूचना एवं जनसंचार माध्यमों का ऐसा संजाल होगा जिसकी सहायता से दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक कोई सूचना पहुंचाना बहुत आसान हो जाएगा। 

1960 के दशक में पूरे विश्व में रेडियो और टेलीविजन अत्याधुनिक संचार माध्यम के रूप में उपलब्ध थे। भारत में प्रिंट मीडिया और परंपरागत माध्यम या फोक मीडिया ही स्थायी रूप से जनसंचार के माध्यम थे। आकाशवाणी उस समय था लेकिन उसके लिए अभी कोई निश्चित प्रसारण नीति नहीं बन पाई थी। टेलीविजन का प्रसारण 1959 में शुरू ही हुआ था। रेडियो और टेलीविजन के लिए चंदा कमेटी और वर्गिज कमेटी के गठन और उनकी अनुशंसाओं का दौर था। 

ऐसे समय में ग्लोबल विलेज की अवधारणा का विरोध तो होना ही था। लेकिन जब इंटरनेट का आविष्कार हुआ और सूचना व संचार प्रौद्योगिकी का विकास हुआ तक मैकलुहान की अवधारणा सच साबित होती दिखी। वैश्वीकरण के बाद जब इंटरनेट और स्मार्टफोन तक आम लोगों की पहुंच हुई तो यह अवधारणा बिल्कुल सच साबित हुई। सूचना व संचार प्रौद्योगिकी के वर्तमान दौर की कल्पना उस समय मार्शल मैकलुहान ने की थी। आज पूरा विश्व एक वैश्विक ग्राम में तब्दील हो गया है। डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया इसके साकार रूप हैं। आज सूचनाएं मात्र एक क्लिक पर पूरे विश्व में भेजी जा सकती हैं। 

मार्शल मैकलुहान ने एक और अवधारणा दी थी- मीडियम इज द मैसेज यानि माध्यम ही संदेश है। उन्होंने टेलीविजन के दर्शकों पर अध्ययन किया और पाया कि लोगों के पास यदि समय है तो वे टेलीविजन देखते हैं। टेलीविजन पर कौन-सा कार्यक्रम प्रसारित हो रहा है इससे उनको ज्यादा इत्तेफाक नहीं होता। उन्होंने पाया कि जब दर्शक टेलीविजन देखता है तो उस दौरान प्रसारित होने वाली अन्तर्वस्तु से वह अवगत होता है और प्रभावित होता है। इसी आधार पर उन्होंने यह अवधारणा दी कि माध्यम ही संदेश है। 

                    -डॉ. गुरु सरन लाल